Wednesday, March 18, 2015

तुलसी की नारी

बंगाल में रद्द हुआ महिला फुटबाल मैच, हाथरस में आधा दर्जन जाहिलों के दिमागी दिवालियेपन की शिकार एक महिला और घरों में बिना आवाज किये पिटती, सहती, चुप रहती लाखों महिलाओं के आक्रंताओ की मानसिकता में जब धर्म और सामाजिक सहमति का तड़का लग जाता है तो स्थिति और भी खतरनाक हो जाती है.
मगर क्या धर्म वाकई ये कहता है ? या कुछ तथाकथित बुद्धिजीविओं ने धर्म का सहारा लेकर अपनी ज्यादतियों को जायज ठहराने की आदत पाल ली है?
मिले हैं ऐसे भी लोग मुझे जो घरेलू हाथापाई के लिए जाने कहाँ कहाँ की सूक्तियां, उदाहरण दे देकर ये साबित करने की कोशिश करते हैं की ये तो आदिकाल से चला आ रहा है. आदिकाल से चला आ रहा है, इसलिए सही भी है. और इनके निशाने पर सबसे पहले आते हैं तुलसीदास.
रामचरितमानस की और कोई चौपाई याद हो ना हो मगर “ढोल गंवार शुद्र पसु नारी, सकल ताड़ना के आधिकारी” की ढाल खड़ी कर बच निकलने की कोशिश करने से ये कभी नहीं चूकते.
मैं धार्मिक नहीं. रामचरितमानस मुझे कंठस्थ नहीं और ना ही इसके लिखे जाते समय मैं तुलसी बाबा की चारपाई के सिराहने खड़ा था जो उनसे उसी वक़्त ऐसा लिखने की वजह पूछ लेता मगर फिर यकीन है कि उनकी लिखी चौपाई का ऐसा इस्तेमाल होते देखते तो वो भी ऐसी सोच रखने वाले पर खुश ना होते.
अफ़सोस तब ज्यादा होता है जब पढ़ा लिखा तबका भी इसको एक्सेप्ट कर लेता है.
मैं इतिहासवेत्ता नहीं...होता तो जरुर कोशिश करता कि इस चौपाई के पीछे का सन्देश क्या है मगर कहते हैं ना कि कभी कभी पढ़े से कढा अच्छा.
ऐसे ही एक कढ़े हुए आदमी की कही हुई बात नहीं भूलती इस चौपाई के बारे में. बारह पंद्रह साल पहले छोटी लाइन पर मंथर गति से चलती ट्रेन में मुलाकात हुई थी उस आदमी से. गर्मी की दोपहरी और सीट्स पर बैठे ५/६ लोग जिनमे से एक मैं भी था... और एक खिचड़ी दाढ़ी वाला एक ऐसा अति साधारण पहनावे वाला साधू जो राह चलते कभी सामने से गुजर तो भी लोगो को नहीं दिखता.    
मोबाइल इन्टरनेट आम नहीं था इसलिए सफ़र में वक़्तगुजारी का सबसे अच्छा साधन बतकही हुआ करती थी. जाने कहाँ की बात कहाँ से निकली और अचानक इस चौपाई पर आकर रुक गई. कहने वाले ने गर्व से बाकियों को देखा जैसे मन ही मन कह रहा हो “बोलो, है कोई जबाब इसका?”
सामने बैठा वो साधू हंसने लगा. जोर से, ठठाकर.
“तुलसी बाबा इ थोड़े ना बोले थे बेटा कि घर के बाहर से गाली खा के आओ तो मेहरारू को थप्पड़ जमा दो, दारु पी के आओ खाना ना मिले तो लात जूता लेके शुरू हो जाओ..अरे जो गलती तुमको करना वो तो तुम कर ही रहे हो...मगर तुलसी बाबा को काहे घसीट ले रहे हो अपने इ सब काम में” साधू ने उस बुद्धिजीवी से पूछा.
“अरे तो आप ही बताओ क्या मतलब हुआ इसका...बताओ” बुद्धिजीवी ने चैलेंज सा फेंका.
“बताता हूँ. पहिले इ बताओ की ताड़ना मतलब क्या होता है?
“ताड़ना मतलब दंड देना, सीख देना”
“और चिकित्साधिकारी का का मतलब होता है?”
“चिकित्सा करने का सामर्थ्य जिसके पास हो”
“जिलाधिकारी मतलब”
“जिले का अधिकारी मतलब जिसके पास जिले को सम्हालने का जिम्मा हो”
“और दंडाधिकारी मतलब?”
“दंड देने का अधिकारी”
“मतलब?”
“मतलब जिसके पास दंड देने का अधिकार हो और क्या”
“और ताड़ना के अधिकारी मतलब?”
“मतलब ?”
“मतलब जिससे पास ताड़ना देने का सामर्थ्य हो. तुम तो तुलसी बाबा की पूरी कथा ही इधर उधर कर दिए. बाबा जब कहे रहे की जब इ पांचो में ताड़ना का सामर्थ्य है तो मतलब का हुआ इसका?” साधु बोलता गया. “मतलब ये हुआ की इन पांचो से सही से, ढंग से पेस आया करो वरना ये रुष्ट हो गये तो जिनगानी में मजा नहीं आएगा बाबु. जो ढोल शादी बियाह में मजा देता है वही ढंग से, मोह्हबत से नहीं बजाओगे तो बहुत कष्टकारी आवाज आएगी. जिस मेहरारू को तुम लोग बिना बात दो हाथ जमा देना में अपना मर्दानगी समझते हो वो एक दिन घर के काम से हाथ से हाथ खींच ले तो नौकरी चाकरी सब छोड़ के घरे साफ़ करते फिरोगे बाबु. एक हफ्ता बच्चे का लंगोटी धोने को बोल दे तो अठवे दिन कहोगे की बाबा दीक्षा दिला दो. कोई ना बोले तो तुम्हारा गल्त काम सही थोड़े हो जायेगा. अब बोलो बाबु, कौन किसको ताड़ना देने का सामर्थ्य रखता है?”
अब उस साधू ने तुलसी का दर्शन सही समझाया या गलत वो तो वो जाने या तुलसी बाबा मगर मैंने इसी दर्शन के साथ जुड़े रहने का फैसला कर लिया था.
आपको सही लगे तो दूसरों को भी यही दर्शन बांटते रहिये.

शुभरात्रि. 

Tuesday, March 3, 2015

नकारात्मकता का वाई फाई कनेक्शन

जब से दुनिया बनी है तबसे दुनिया में तमाम बीमारियों ने पाँव पसारा. दुनिया ज़हान के लोगों ने मिलकर उनका इलाज खोजा और दुनिया को रहने लायक बनाया. मगर एक छुआछूत जैसी बीमारी का इलाज शायद आजतक नहीं मिल पाया...और उस नासपीटी बीमारी का नाम है, नकारात्मकता. बीमारी इसलिए कहना पड़ रहा है क्यूंकि इससे किसी का भला होते तो नहीं देखा आजतक.
कभी मिला है ऐसा मरीज आपको?
ऐसे लोगों को मैं कहता हूँ HED यानी Human Energy Drainers.
चाल में सुस्ती, बात में पस्ती और शकल पर मुर्दे के राख सी लपेट कर फिरने वाले लोगो ने अपनी जली किस्मत के चलते ये फ़ितरत पैदायशी पाई होती है या किसी और कलाकार से सीख कर पॉलिश की होती है इस बार में विद्वानों में मतभेद हो सकता है मगर इस बात में कत्तई कोई दो राय नहीं हो सकती है कि इसके मरीज को फ़ौरन इलाज की सख्त ज़रूरत हमेशा होती है.
दुनिया भर की मैनेजमेंट यूनिवर्सिटीज ये बताने में लगी रहती हैं कि रिसोर्सेज कैसे मैनेज करें, प्रॉफिट कैसे बढ़ाएं, लास कैसे कम करें मगर टॉप के मास्साब लोग भी ये बताने से चूक जाते हैं कि नकारात्मकता के मशाल धावकों से कैसे बचें?
मेरी निगाह में सबसे उम्दा, सबसे कारगर तरीका है कि दूर रहें.
गज फुट से नापकर दूर होने की जगह ऐसा रेडियस चुने जिसके अन्दर ऐसे लोगो की बात अन्दर घुसने से पहले ही दम तोड़ दिया करे.
इनकी बातें कानो में पड़ भी जाएँ तो ऐसे इग्नोर करें जैसे एग्जाम में आखिरी मिनट में घनघोर रफ़्तार से शीट भरने में लगा विद्यार्थी कक्ष निरीक्षक की जल्दी आंसर शीट जमा करने की घोषणा पर कान नहीं देता.
क्यूंकि एक बार इनकी बातों पर ध्यान दे दिया तो जनम भर का रोग लगा लिया समझो.
ऐसे लोग जब आधा भरा गिलास देखते हैं तो ये सोचने से नहीं चूकते कि गिलास आधा ख़ाली तो जो है वो हइये है कहीं टूट ना जाये और बाकी पानी भी चला जाये. ऐसे लोग जब किसी बीमार को देखने जाते है तो सांत्वना देते वक़्त कह देते है कि “लकी आदमी हो भाया, दस में से नौ मर जाते है तुम्हारी वाली बीमारी से...ख़ुशी की बात है कि नौ मर चुके हैं”. भविष्य की तरफ़ पीठ करके चलने वाले, बीते वक़्त की ब्लैक एंड वाइट तस्वीरें बगल में दबाये चलने वाले ये लोग आने वाले वक़्त की आशा नहीं देखते, बीते दौर की रंगीनियों का रोना रोते रहते हैं.
लेकिन लाख रुपये का सवाल ये है कि लोग ऐसे होते क्यूँ है?
शायद इसलिए की उनकी अपनी जिंदगी में उन्होने उम्र भर से ऐसे ही देखा है जीवन को, ऐसे ही जिया है जिंदगी को...चूँकि शायद खुद कुछ ना कर पाए अपनी जिंदगी में इसलिए आदत बना ली हर किसी को चेताने कि जिंदगी की राह में रोड़े बहुत हैं, बैरियर बहुत हैं.
ऐसा आदमी अपनी कमज़ोरी को ही अपनी ढाल बनाये फिरता है.
नकारात्मकता का चलता फिरता वाई फाई टावर बने फिरते हैं. बिना पैसे के अपनी चिंताए दूसरों के दिलो दिमाग में डाउनलोड करवा देते हैं.
प्रभु बचाएं.
शायद उन्हें खुद कभी ऐसे किसी अपने का, दोस्त का सहारा ना मिला जो उन्हें उनकी पस्ती के आलम से बाहर निकाल पता इसलिए उन्होने दूसरों के भी उम्मीदों की सीढियों के डंडे तोड़ने शुरू कर दिए.
ऐसे लोग जहाँ भी मिलें, नज़दीकी मानसिक चिकित्सालय का पता उन्हे ज़रूर बताना चाहिए.

...सीरियसली मैन.