Tuesday, December 16, 2014

सबक़ हमारे लिए भी है

बहुत पहले बचपन में डोगा की एक कॉमिक्स पढ़ी थी. ‘सुपरबॉय’. एक कमउम्र लड़के की कहानी थी, जो सुपर हीरोज की कहानियां पढ़ पढ़ कर खुद भी सुपर हीरो बनना चाहता था. एक आतंकवादी को पकडवा भी देता है. फिर उस आतंकवादी के बाकी गैंग वाले उस बच्चे के स्कूल पर कब्ज़ा कर लेते हैं और पुलिस को अपने साथी को  छोड़ने के लिए कहते हैं. गोलाबारी होती है. वो एक बच्चे को मार भी देते हैं. डोगा आता है और पुरे गैंग को खत्म कर देता है.
बहुत दिनों तक इस कॉमिक्स की कहानी याद रही. इसलिए नहीं सुपरबॉय मेरी सबसे पसंदीदा कॉमिक्स थी...बल्कि इसलिए कि अपने बाल बुद्धि के चलते कभी कभी दिमाग में ये ख्याल आता था कि अगर कभी मेरे स्कूल में कोई गुंडा घुस आये तो मैं क्या करूँगा ? कैसे दूसरों को बचाऊंगा और कैसे खुद बचूंगा ?.
बड़े होने पर अपनी ही इस बाल बुद्धि पर हंसी आती थी. कभी किसी को बताया नहीं मगर इस फ़ितूर का एक फ़ायदा भी हुआ था. मुझे बचपन में अपने स्कूल से बाहर निकलने के मैक्सिमम रास्ते पता थे. सीढ़ियों की, खिड़की-दरवाजों की, बिजली के बोर्ड्स, अलग अलग क्लास रूम, ऑफिस रूम वगैरह की लोकेशन बहुत अच्छे से याद थी. छुपने की कई जगहें निगाहों निगाहों में ही नाप रखी थी.   
ईश्वर की कृपा रही कि कभी भी ऐसी कोई नौबत नहीं आई. और ईश्वर करें कि कभी ऐसी नौबत ना ही आये.  
आज पकिस्तान के स्कूल में हमले के बाद जो हालात है...उसमे हमारे लिए भी एक सबक हैं.
हमारा अपना आतंरिक सुरक्षा तंत्र भी फुलप्रूफ नहीं है. इस बात की सबसे ताज़ा बानगी ‘मेहँदी’ है. इतने दिन से यहीं रह रहा था, और खतरनाक आतंकी संगठन की तरफ़ से सक्रिय था.
पकिस्तान में जो हो गया, उसे बदला नहीं जा सकता मगर उससे सबक लेकर यहाँ सावधान तो रहा जा सकता है.
अपने देश के सुपर हाई फाई स्कूल की बातें मैं नहीं जानता मगर आम हिन्दुस्तानी स्कूल के बच्चों को और टीचर्स को भी पता नहीं होता है कि आपात स्थिति में क्या करना चाहिए...कैसे बचना चाहिए, कैसे बाहर निकलना चाहिए, कैसे लड़ना चाहिए. जो थोड़ी बहुत जागरूकता कार्यक्रम होते भी है उनमे से ज्यादातर खानापूरी ही रह जाते हैं.
हमें ज़रूरत हैं स्कूल, कॉलेज और ऐसे तमाम अन्य संस्थानों में प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाने की जहाँ हमें पता हो की ऐसे हादसों के वक़्त हमें क्या करना है, कैसे निपटना है.
ऐसे सुनियोजित आतंकी हमलों से लड़ना आम आदमी के बस का नहीं है...मगर बचना तो सीख सकता है...थोडा बहुत तो बच ही सकते हैं ऐसी स्थिति में. सरकार हर किसी को लड़ना नहीं सिखा सकती, बचना तो सिखा सकती है. हम खुद भी तो सीख सकते हैं.

और ये सिर्फ़ सरकार की ही जिम्मेदारी नहीं है कि सारी सतर्कता वही बरते. अपनी आँखों के सामने छोटे गुनाह होते देख निगाहें फेर लेने वाले लोग उसी वक़्त बड़े जुर्म की बुनियाद में भी एक ईंट जोड़ देते हैं.    

Thursday, November 20, 2014

अभिशप्त

आज एनडीटीवी पर रवीश की रिपोर्ट देख रहा था...
पांच मंजिली ईमारत, विशाल अहाता, एसी कमरे, पर्सनल लिफ्ट, खुबसूरत स्वीमिंग पूल, थ्री स्टार होटल जैसा बाथरूम...एंड व्हाट नॉट? जो रामपाल साहब खुद को मरणासन्न/बीमार बता रहे थे, कोर्ट में पेश नहीं हो सकते थे...वो खुद अपने पैरों पर खड़े होकर पत्रकारों को इंटरव्यू दे रहे थे. और, दिखे ऐसे भी लोग जो अभी भी अपनी अंध-आस्था पर अडिग हैं. रामपाल बाबा की तस्वीरों के सामने साष्टांग दंडवत ये लोग गुस्से के नहीं सहानभूति और दया के पात्र लगे. ऐसा भी नहीं है की ऐसी अंध-आस्था सिर्फ रामपाल बाबा के लिए है. ऐसे तमाम लोग हैं हिन्दुस्तान में जो अपने को गुरु घोषित कर देते हैं, यहाँ तक कि मोहल्ला लेवल पर भी. मेरे एक स्टूडेंट का परिवार, जिनके मुखिया कंस्ट्रक्शन मटेरियल सप्लाई का काम करते थे, सालों से ऐसी ही एक लोकल टाइप माता जी की शिष्यता निभा रहे थे. भक्ति का चरम ये था उनक जूठा अचार तक प्रसाद स्वरुप ग्रहण होता था. कई सालों तक उनके कहने पर उनके आश्रम के लिए कंस्ट्रक्शन मटेरियल ऐसे ही भेज देने वाले परिवार ने बार बार उनकीं डिमांडिंग आज्ञा से खिन्न होकर अंततः उनको फाइनल नमस्ते बोल दिया.
अपने आप को गुरु की पोस्ट पर अपॉइंट करने के कौन सी क्वालिफिकेशन की ज़रूरत होती है, आज तक मुझे पता नहीं लग पाया. शिष्य बनने के लिए ‘पात्रता’ सिद्ध करनी पड़ती है...एकलव्य और कर्ण को तो फिर भी शिष्यता नहीं मिली थी मगर जैसे शिष्यता की पात्रता सिद्ध करनी पड़ती है वैसे ही गुरु की पात्रता भी तो सिद्ध होनी चाहिए.
हिन्दुस्तान अभिशप्त है, धर्म के नाम पर मूर्ख बनाने वाले लोगों की वजह से. और उन लोगों की वजह से जो धर्म का मर्म समझे बिना ही ऐसे लोगों की जयजयकार में लगे रहते हैं. चमत्कार को नमस्कार करने वाले देश में आस्था को तर्क की कसौटी पर कसना बहुत खतरनाक काम है. आप उनकी आस्था पर तर्क करने की कोशिश करेंगे तो मुहं की खायेंगें, चुप कराये जायेंगे, पीटे भी जा सकते है...इत्यादि, समझे?.
ऐसा ग़रीब, अनपढ़, अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी में तमाम झमेलों से जूझती हुई जनता ही करती हो, ऐसा नहीं है. सूट –टाई, चमकते बूट पहनने वाली जमात भी कभी कभी ऐसे ऐसे उदाहरण, तर्क देते हैं कि चक्कर आ जाना आम बात है.
छोटी से जिन्दगी में जितना भी कबीर को, बुद्ध को, कंफ़िउशियस, सुकरात वैगरह को पढ़ सका, कहीं भी ऐसा नहीं लगा जहाँ ये व्यक्तित्व धर्मपालन की जगह व्यक्ति आराधना को महत्त्व देते हों. ईमानदारी से अपना काम करने की जगह, ढोल मंजीरा लेकर जयजयकार को प्राथमिकता देते हों.  
खैर, ऐसी बातें हर धर्म, मजहब, संप्रदाय, पंथ में मिल ही जाती है. अगर यकीन हो की बनाने वाले ने इंसान को बनाने के साथ साथ बुद्धि भी इंस्टाल कर करके ही इस धरती पर भेजा है, और बुद्धि का काम ‘सोचना-समझना’ भी है तो उसका उसका इस्तेमाल भी करना चाहिए.

जीवन में गुरु ज़रूर चुनिए...चुनिए. और, अपनी शिष्यता सिद्ध करने के साथ साथ उनकी गुरुताई की सिद्धता का भी ध्यान करना चाहिए. 

Wednesday, October 8, 2014

तमाशा ए बाज़ारी बाज़ीगरी- बिग बिलियन डे सेल


अपनी प्रोफेशनल कमिटमेंट की वजह से मैं व्यापारिक और राजनैतिक मुद्दों पर सोशल मीडिया में अपनी राय नहीं रखता, मगर कल मेरे एक पुराने स्टूडेंट ने जब ई-बाज़ार की हालिया बाज़ीगरी ‘बिग बिलियन डे सेल’ के बारे में जानना चाहा तो मुझे लगा की इस मुद्दे पर मुझे भी कुछ बातों को लोगों को सामने रखना चाहिए.   
बात की शुरुआत करने से पहले एक छोटी कहानी बताता हूँ, जो मैंने बहुत पहले कहीं पढ़ी थी.
बहुत पहले पुराने ज़माने में घोड़ों के एक सौदागर का एक बूढ़ा अरबी घोडा मर गया. था तो वो सौदागर ही...उसमे सोचा क्यूँ ना मरे हुए बूढ़े घोड़े को भी बेच कर कुछ पैसे बनाये जाएँ. सौदागर ने मरे घोड़े को एक टेंट में छुपाकर रखा और बगल के शहर में मुनादी करवा दी कि सिर्फ़ दस रुपये में अरबी घोड़ा खरीदिये. हर वो आदमी जिसे दस रुपये में अरबी घोड़ा ख़रीदने की चाहत थी उसके दस रुपये जमा करके एक रसीद दे दी गई. और, सबको अगली सुबह आने के लिए कहा गया जहाँ लॉटरी के ज़रिये विजेता खोजकर उस घोड़े को बेचा जाता.
अगले दिन जब सारे रसीद वाले जमा हो गए तो लॉटरी निकालकर एक को विजेता घोषित किया गया. बाक़ी लोगों को लौटकर सौदागर ने लॉटरी जीते हुए आदमी से कहा की तुम्हारा घोडा टेंट में है...जाकर ले लो. जब उस अकेले आदमी ने टेंट में घोड़े को मरा हुआ पाया तो बाहर निकल कर शिकायत की
“घोडा तो मरा हुआ है.”
“हम्म, कितने रुपये जमा किये थे आपने?” सौदागर ने कहा
“दस रुपये”
“आपको हुई तकलीफ़ के लिए मुआफ़ी चाहता हूँ. ये लीजिये पंद्रह रुपये. लौटते वक़्त तांगा कर लीजियेगा” सौदागर ने अपनी अंटी से पंद्रह रुपये निकल कर उसके हाथ पर रखे और अपने बाकी बचे घोड़ों के साथ ये जा वो जा.
वो चतुर सा आदमी भी खुश हुआ की दस जमा करके पंद्रह मिल गए.
*
६ अक्तूबर.२०१४ की सुबह आठ बजे से भारतीय ई बाज़ार में हाहाकार सा मच गया. ऐसा लगा जैसे सालों पहले बिग बाज़ार के शोरूम के सामने ‘सबसे सस्ते दिन’ पर लगने वाली लम्बी लम्बी लाइनें उस दिन वर्चुअल हो गई हों. उस दिन हिन्दुस्तान के लाखों लोगों ने जब आखें मलते, चाय पीते हुए या इंग्लिश कमोड पर बैठ कर दुनिया का हाल जानने के लिए अखबार खोला तो पाया की उस अखबार के पहले पेज पर ही मशहूर ई रिटेलर फ्लिप्कार्ट का ‘फुल पेज एड’ छपा हुआ था जिसके मुताबिक़ कई सामान जैसे सिंगल हैण्ड ब्लेंडर एक रुपये में, २ टेराबाईट की एक्सटर्नल हार्ड डिस्क छः सौ रुपये में, परफ्यूम सीधे साठ प्रतिशत छूट पर मिल रहे थे...और अगर सिटी बैंक या स्टैण्डर्ड चार्टर्ड बैंक का कार्ड हो एक्स्ट्रा दस प्रतिशत की छूट मिलने का भरोसा दिलाया गया था.
लोगों ने घड़ी की तरफ़ निगाह उठाई तो कई घड़ियों में आठ बज चुके थे. (मेरी भी) और कईयों की बस बजने ही वाले थे.
लोगों ने लपक कर फिल्प्कार्ट की साईट खोली और (ऊप्स) पाया की आठ बजकर पांच मिनट होते होते कई प्रोडक्ट ‘सोल्ड आउट’ हो चुके थे. (!) कई लोगों को लगा की उन्हें बिना सामान बेचे ही ठग लिया गया. दोपहर तक तो ये हालात हो गए की सोशल मीडिया पर ‘बिग बिलियन डे’ के साथ साथ ‘फ्लॉपकार्ट’ ‘फूलकार्ट’ जैसे हैश टैग ट्रेंड करने लगे. दिलचस्प बात ये रही की शाम होते होते कंपनी ६०० करोड़ का सामान बेच चुकी थी और कई कस्टमर फ्लिप्कार्ट पर धोखा देने का आरोप लगा रहे थे. कईयों ने शिकायत की कंपनी ने चीजों के दाम बेजा तरीके से बढे हुए दिखाकर फिर डिस्काउंट दिया, उनके आर्डर को कंपनी ने खुद ही कैंसिल कर दिया,और कई प्रोडक्ट्स सब स्टैण्डर्ड थे. आठ तारीख़ के इकनोमिक टाइम्स में पहले ही पेज पर बंसल बंधुओं का एक बयान छपा “We realize that this breaks the trust our customers have put in us.  We are truly sorry for this and will ensure that this never happens again”
अब लाख रुपये का सवाल है की जब इतने सारे लोग फ्लिप्कार्ट की शिकायत कर रहे हैं तो आखिर ६०० करोड़ की सेल हुई कैसे?
(आगे की कहानी हिन्दुस्तानी चिठ्ठी लिखने के पुराने तरीके ‘थोडा लिखा है, समझना ज्यादा’ वाले मोड में हैं.)
US मार्किट में मशहूर ब्लैक फ्राइडे, जिसमे नेशनल रिटेल फ़ेडरेशन के अनुसार सन २००६ में ही लगभग १४० मिलियन क्रेताओं (लोग नहीं) ने ख़रीददारी करी थी, की तर्ज़ पर फ्लिप्कार्ट वालों ने हफ्तों पहले से टीवी पर विज्ञापन दिखाने शुरू किये की ६ अक्तूबर को बिग बिलियन डे आ रहा है जो की कुम्भ मेले से भी बड़ा होगा. मगर कौन से प्रोडक्ट पर कितनी छूट मिलेगी, ये नहीं बताया (अगर मैं भूल रहा हूँ तो कोई मुझे याद दिलाये.)
६ अक्टूबर की सुबह एक फुल पेज एड लोगों को अपनी शक्ल दिखाने के लिए बेताब था. और तब जाकर पता लगा की किस प्रोडक्ट् पर कितनी छूट है.
इसी बीच, एक साइड स्टोरी ६ तारीख़ को ही बिग बिलियन डे चुनने की भी....
कई अख़बारों और मेरे कई मित्रों ने बताया है कि ६/१० को बिग बिलियन डे की चुनने की वजह ये है की फिल्प्कार्ट ने अपना बिज़नस जहाँ से स्टार्ट किया था उसका फ्लैट नंबर ६१० था.
वाकई ?
दरअसल ये खेल है टाइमिंग का.
एडवरटाइजिंग में सही वक़्त पर सही मेसेज देने का का क्या मतलब होता है ये शायद मुझे बताने की ज़रूरत नहीं है. इसलिए तो वोटिंग के आख़िरी वक़्त तक वोट देने जाते हुए शख्स को नेताओं के चेले तमाम तरह से सीधे या इशारों से जताते रहते हैं की सही वोट किसे देना है.
और, इस पूरी कहानी में ६ तारीख़ और हर मशहूर अखबार में फ्रंट पेज एड की अपनी ही एहमियत है. इसके बिना तो काम ही नहीं चलता क्यूंकि एक निश्चित समय (सुबह ६:३० से ८ के बीच) एक ही टाइम पर लोगों को प्रोडक्ट्स और छूट की जानकारी देना ज़रूरी था ताकि सामान ख़रीदने की ऑनलाइन धक्क्मुक्की एक ही टाइम पर, बिना सोचे शुरू हो सके. ये काम टीवी एड या सोशल मीडिया एड से नहीं होता क्यूंकि सुबह सात से आठ बजे के बीच कस्टमर को फ़ौरन ख़रीदने के लिए अखबार ही सबसे बेहतर, तेज़ और एक्यूरेट मीडियम था.
मगर, ये सेल ६ तारीख़ को ही क्यूँ ?
त्योहारों के मौसम में हम हिन्दुस्तानी वैसे ही कंपनियों के ऑफर का इंतजार करते हैं. मानसिक रूप से खर्च करने के लिए पहले से ही तैयार रहते हैं. ऊपर से टीवी पर दिन रात आते बिग बिलियन डे के विज्ञापन.
इस साल के अक्तूबर की चार और पांच तारीख को नवरात्रों की वजह से तमाम अखबारों के दफ्तर में छुट्टियाँ थी. और सात तारीख़ को बकरीद की वजह से. यही ऑफर अगर तीन तारीख़ को रखते तो कस्टमर की बकरीद के मौके पर होने वाली बम्पर ख़रीददारी छूट जाती और अगर सात को रखते तो दशहरे के फेस्टिव मूड का फायदा ना मिल पाता.
सुबह तकरीबन हर बड़े अखबार के पहले पन्ने पर छपे एड ने लोगों को फ़ौरन वेबसाइट की तरफ मोड़ दिया क्यूंकि सेल आठ बजे से शुरू हो चुकी थी और देर करने पर सस्ते प्रोडक्ट्स हाथ से निकल सकते थे. यहाँ पर एक मशहूर जासूसी उपन्यासकार सुरेन्द्र मोहन पाठक साहब की कही हुई एक उक्ति का जिक्र करना चाहूँगा कि “आदमी प्रलोभन से नहीं बच सकता क्यूंकि वो चौकन्ना रहता है की प्रलोभन उससे बचकर ना निकलने पाए.”
वेबसाइट पर टिकटिक करती घड़ी, सोल्ड आउट होते जा रहे प्रोडक्ट्स की लिस्ट और बड़े बड़े फॉण्ट साइज़ में लिखे ‘छूट’ का प्रतिशत लोगों को लोगों को फ़ौरन आर्डर प्लेस कर देने के लिए मजबूर कर दे रही थी. Short time to place order, scarcity of products and significant emphasis on lower price…what a move.
कई लोगों को अच्छे प्रोडक्ट्स कम दामों पर मिल ही गए हैं. मगर ये ध्यान देने की बात है कि एक तरफ जहाँ स्नैपडील.कॉम जैसे ई रिटेलर ‘EDLP (Every Day Low Pricing) स्ट्रेटेजी पर काम करती दिखाई पड़ती है वहीँ फिल्प्कार्ट ने ‘Loss Leadership Pricing’ स्ट्रेटेजी को प्रत्यक्षत: अपनाया.
इस पूरे माहौल में कुछ बातें दिलचस्पी से खाली नहीं है. जैसे-
  • ·         ६०० करोड़ जैसी धमाकेदार बिक्री के बाद भी फ्लिप्कार्ट की ब्रांड इमेज पर नेगेटिव असर पड़ा है. परम्परागत और सोशल मीडिया दोनों जगह इसे ‘गड़बड़’ करार देने वालों की कमी नहीं है.
  • ·         सोनी और एलजी जैसे निर्माताओं की इस बिग बिलियन डे पर प्रतिक्रिया देखने लायक है.
  • ·         इतने व्यापक विज्ञापनों के बाद भी स्नैपडील और अमेज़न जैसी प्रतिद्वंदी कंपनीयों के लिए अभी एक बड़ा मौका बचा रह गया है.
  • ·         और सबसे ख़ास, अगर वक़्त हो तो bigbillionday.com भी विजिट कर के देखें.



Disclaimer: This article is based on research, knowledge, experience and views of the writer.  The writer of this post does not have any intention in any manner to tarnish the image of flipkart.com and its services. 

Sunday, October 5, 2014

स्वच्छ भारत- अभियान से आदत तक

पुराने ज़माने में (थोड़े फ़ेरबदल के साथ आज भी) कम आय वर्ग के घरों के लड़कों की शादी की लिए भी कम पापड़ नहीं बेलने पड़ते थे. लड़के की शादी लायक उम्र होने पर पिता की जगह उसे सामाजिक कार्यक्रमों में भेजा जाने लगता था, जहाँ वो ‘सजनी हमहूँ राजकुमार’ बना शिर्कत करता था. घर ठीक ठाक करा लिया जाता था और कभी कभीं ‘वर देखुआ’ पार्टी आने के पहले अनाज की बोरियां और पडोसी के बैल आजकल के मोटर गाड़ियों की तरह ही ड्योढ़ी पर सजा दिए जाते थे.
सोशल मीडिया पर हलचल देखकर ऐसा लगता है जैसे हिन्दुस्तान में भी कोई ‘वर देखुआ’ पार्टी आने वाली है. हर तरफ़ सफाई सफाई का इतना शोर है कि लगता है जैसे कोई सफाई क्रांति हो गई हो, और हिन्दुस्तान का सारा कूड़ा अरब सागर के भी पार किसी अनजान स्थान पर भेजा जाने वाला हो. अच्छा लगा, लोगों की अपने प्रधानमन्त्री की अपील पर ये प्रतिक्रिया देखकर. ख़ुशी हुई ये देखकर कि, भले ही कुछ लोगों ने सिर्फ फोटो खिंचवाने और सोशल मीडिया पर अपलोड करने के लिए हाथ में झाड़ू पकड़ा हो मगर कईयों ने वाकई इस अपील को दिल से अपनाया.
मगर अफ़सोस ये होता है की सफाई जैसे काम के लिए भी प्रधानमंत्री को स्वयं बार बार अपील करनी पड़ती है. हम अपना आँगन तो साफ़ कर लेते हैं मगर गली गन्दी कर देते हैं. सुबह सुबह नहा कर सूर्य को जल चढाने वाली संस्कृति के पोषक देश में नगर निगम की कूड़ागाड़ी की व्यवस्था की बावजूद कॉलोनी के खाली पड़े प्लाट पर कूड़ा फेकने का कल्चर कहाँ से पनप गया...सोचने वाली बात है.
हिन्दुस्तान के अमूमन हर त्यौहार के दौरान कानों में पड़ने वाले ‘सत्य की असत्य पर जीत’ ‘बुराई पर अच्छाई की जीत’ जैसे सन्देश मुझे ये याद दिलाने से भी नहीं चूकते कि बुराई कितनी भी बुरी क्यूँ ना हो, अच्छाई के सामने अब तक ताल ठोंक का टिकी हुई है. हिन्दुस्तान में बसा कौन सा ऐसा धर्म/मजहब/सम्प्रदाय/पंथ...है जिसने हजारों सालों से साफ़ सफाई का उपदेश ना दिया हो मगर फिर भी हम आज तक गंदगी से पूर्णतया छुटकारा ना पा सके.
मैं सोशल साइंस का का कोई एक्सपर्ट तो नहीं, मगर इतना समझता हूँ की इस कूड़े और गंदगी से हिन्दुस्तान तबतक आज़ाद नहीं हो सकता जबतक हम गंदगी को गंदगी मानना शुरू ना कर दें. शायद, कई बार हम सामाजिक और मानसिक तौर पर कूड़े और गंदगी के साथ रहने के इतने अभ्यस्त हो चुके होते हैं की हमें वो गंदगी लगती ही नहीं है. गजबजाती नालियों और सड़क पर उड़ते कूड़े करकट के हम इतने अभ्यस्त हो चुके होते हैं की उन्ही रास्तों से जब कोई मुंह पर कपडा बाँध कर निकलता है तो या तो उसे हम ‘बाइकर’ मान लेते हैं या ‘बीमार’.
कुछ तो इतने कमाल के प्राणी होते हैं जो ‘यहाँ थूकना मना है’ लिखे पर ही थूक देते हैं.
जहाँ रेलवे फाटक पर बस रुकने पर आसपास लगे एक एक तने पर दस दस लोगों का कब्ज़ा करके ‘शंका निवारण’ की परिपाटी हो, वहां आखिर गंदगी दूर हो तो कैसे हो? जहाँ ट्रेन के टॉयलेट में मग को चेन से बाँध कर रखना पड़े और ‘सिर्फ फैंसी सड़कों पर लगे कूड़ेदान’ टूट जाएँ, गायब तक हो जाएँ वो जगह साफ़ रहे तो कैसे रहे? धीमे धीमे ही बढती सही, मगर सफाई पसंद करने वाली जमात जब हाथ पकड़ी पानी की बोतल या छिलके फेकने के लिए कूड़ेदान की तलाश में निगाह दौड़ाती है तो कुछ ना पाकर मजबूरन वो भी वहीँ फेक देती है जहाँ पहले से ही कूड़ा पड़ा हुआ है.  
अगर सिर्फ़ अभियानों से काम चलता तो शायद आज हम राकेट की जगह एलीवेटर से मंगल पर जा रहे होते. कोई भी सामाजिक अभियान तब तक सफल नहीं हो सकता है जब तक कि लोग उससे ना जुड़ें. हो सकता है कि ख़बरों को पढने में मेरी निगाह चूक गई हो मगर प्रधानमन्त्री की इस अपील पर राज्य सरकारों ने क्या रवैया अपनाया,मुझे पता नहीं.
वैसे, हर स्तर पर सफाई करना/रखना सरकार का काम है भी नहीं. किसी जगह को साफ़ रखना आपके चुनाव पर भी निर्भर करता है. अगली बार कहीं गंदगी फेकने से पहले अपने आप से, ईमानदारी से सिर्फ एक सवाल ज़रूर पूछिएगा कि “क्या ये गंदगी फेकने की सही जगह है?”

‘स्वच्छ भारत अभियान’ एक बहुत अच्छी पहल है मगर इसकी सफलता तब तक संदिग्ध है जब तक हम सब मिलकर इस अभियान को आदत में ना बदल लें. ये ना एक दिन में होगा, और ना सिर्फ एक बार करने से ही हो जायेगा. 
मगर कोशिश करने से क्या नहीं हो सकता ?