Wednesday, February 25, 2015

चिंतन की चिंता

किसी महापुरुष ने कहा है कि “चिंता ताकी कीजिये जो अनहोनी होए, अनहोनी होनी नहीं, होनी होए तो होए”...चिंतन के बारे में क्या कहा है...अभी पता नहीं.

आज की तारीख़ में चिंतन ट्रेंडिंग टॉपिक है.

चिंतन बड़े लोगों का शगल है, मूंगफली फोड़कर खाते...चखने के साथ बियर पीते हुए भी की जा सकती है.
चिंता छोटों का सरदर्द है... कमबख्त भूख ही नहीं लगती.

फरक है, विज़न का फ़र्क है बॉस.

चिंता करने वाले की नींद ही उड़ जाती है, चिंतन करने वाले का कभी कभी पता नहीं चलता है कि चिंतन करने वाला आँख मूंदे सोच रहा है या घुन्ना सचमुच ही सो गया है.
बड़े बड़े लोग चिंतन करते हैं...चिंतन करने के लिए बाकायदा माहौल बनाते हैं. पुराने ज़माने में खाली कमरा, शांत माहौल, हिमालय की चोटियाँ फैशन में थीं अब नए ज़माने में भद्रजन विदेशी समुद्री बीच के कलर्ड व्यू या विदेशी गार्डन की फ्रेश हवा की ज़रुरत महसूस करते हैं...जो कि अफ़सोस है कि दिल्ली जैसी एयर पॉलयूशन वाली हवा में मुमकिन नहीं. चिंता का क्या है, टूटी खटिया पर भी बैठ कर की जा सकती है...कुछ ना मिले तो खटिया की मौजूदा हालत की ही चिंता की जा सकती है.

चिंतन के लिए विषय का बड़ा होना ज़रूरी है. ग्लोबल वार्मिंग चिंतन का विषय है, बिजली का बिल चिंता का. नेशनल प्रॉब्लम से नीचे का चिंतन साधारणजन का काम है...और इसके लिए कोई टीवी पर बहस के लिए भी नहीं बुलाने वाला.  
मंच से जब कोई नेता जी या बोर्ड मीटिंग में बॉस कहते हैं हमें फलां समस्या के बारे में चिंतन करना चाहिए तो फ़ौरन ही ये क्लियर होता है कि कम से कम अगली मीटिंग तक इस मुद्दे पर कुछ नहीं हो सकता है मगर जब कोई धीरे से इशारा करता है जॉब की चिंता करो तो फ़ौरन से भी पहले पूरी टीम, ‘टीम’ की तरह काम करना शुरू कर देती है.
चिंतन की दुविधा ये भी है कि चिंतन करते समय बताना पड़ता है कि चिंतन प्रोसेस में है वरना कभी कभी दुनिया को पता ही नहीं चलता...चिंता करने वाले की शकल से फटकार बरसती है...बिना एफर्ट की पब्लिसिटी.

अभी पता चला कि एक साहब चिंतन करने के लिए ‘नॉन ट्रेसेबल मोड’ में हो गए. कहाँ है पता नहीं? वैसे तो होते हैं तो भी ना होने से कोई खास बेहतर नहीं होते, मगर नादानों ने मुद्दा बना दिया. ये काम कभी कभी सेल्स की फ़ील्ड में काम करने वाले भी करते हैं. शाम की रिपोर्टिंग के वक़त मोबाइल की बैटरी निकाल कर मोबाइल को जैसे ‘नॉट रिचेबल मोड’ पर लगा देते हैं.

जैसे कुछ लेखक हुआ करते हैं जो अपनी बीवीयों पर, कुर्सी पर सोते से जगाये जाने से भड़क जाते हैं, कहते हैं चिंतन में ख़लल डाल दिया...कुछ लोग ताव खा रहे कि मुद्दा बनाकर भी चिंतन में ख़लल डाल रहे हो.

ये भी एक्स्ट्रा सरदर्द है चिंतन के साथ...ख़लल पड़ना मुमकिन होता है, कभी सुना है आपने जब किसी ने कहा हो मेरी चिंता में ख़लल डाल दिया ?
नहीं ना.
क्यूंकि चिंतन कैपटिलिस्टिक कांसेप्ट है, बांटना आसान नहीं. चिंता असल समाजवादी कांसेप्ट है...चलते फिरते भी अगल बगल वाले को बराबर बांटा जा सकता है. अपने पास ना हो तो भी दूसरे को दिया जा सकता है.

#चिंतन अभी तक ट्रेंड कर रहा है.



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