Tuesday, December 16, 2014

सबक़ हमारे लिए भी है

बहुत पहले बचपन में डोगा की एक कॉमिक्स पढ़ी थी. ‘सुपरबॉय’. एक कमउम्र लड़के की कहानी थी, जो सुपर हीरोज की कहानियां पढ़ पढ़ कर खुद भी सुपर हीरो बनना चाहता था. एक आतंकवादी को पकडवा भी देता है. फिर उस आतंकवादी के बाकी गैंग वाले उस बच्चे के स्कूल पर कब्ज़ा कर लेते हैं और पुलिस को अपने साथी को  छोड़ने के लिए कहते हैं. गोलाबारी होती है. वो एक बच्चे को मार भी देते हैं. डोगा आता है और पुरे गैंग को खत्म कर देता है.
बहुत दिनों तक इस कॉमिक्स की कहानी याद रही. इसलिए नहीं सुपरबॉय मेरी सबसे पसंदीदा कॉमिक्स थी...बल्कि इसलिए कि अपने बाल बुद्धि के चलते कभी कभी दिमाग में ये ख्याल आता था कि अगर कभी मेरे स्कूल में कोई गुंडा घुस आये तो मैं क्या करूँगा ? कैसे दूसरों को बचाऊंगा और कैसे खुद बचूंगा ?.
बड़े होने पर अपनी ही इस बाल बुद्धि पर हंसी आती थी. कभी किसी को बताया नहीं मगर इस फ़ितूर का एक फ़ायदा भी हुआ था. मुझे बचपन में अपने स्कूल से बाहर निकलने के मैक्सिमम रास्ते पता थे. सीढ़ियों की, खिड़की-दरवाजों की, बिजली के बोर्ड्स, अलग अलग क्लास रूम, ऑफिस रूम वगैरह की लोकेशन बहुत अच्छे से याद थी. छुपने की कई जगहें निगाहों निगाहों में ही नाप रखी थी.   
ईश्वर की कृपा रही कि कभी भी ऐसी कोई नौबत नहीं आई. और ईश्वर करें कि कभी ऐसी नौबत ना ही आये.  
आज पकिस्तान के स्कूल में हमले के बाद जो हालात है...उसमे हमारे लिए भी एक सबक हैं.
हमारा अपना आतंरिक सुरक्षा तंत्र भी फुलप्रूफ नहीं है. इस बात की सबसे ताज़ा बानगी ‘मेहँदी’ है. इतने दिन से यहीं रह रहा था, और खतरनाक आतंकी संगठन की तरफ़ से सक्रिय था.
पकिस्तान में जो हो गया, उसे बदला नहीं जा सकता मगर उससे सबक लेकर यहाँ सावधान तो रहा जा सकता है.
अपने देश के सुपर हाई फाई स्कूल की बातें मैं नहीं जानता मगर आम हिन्दुस्तानी स्कूल के बच्चों को और टीचर्स को भी पता नहीं होता है कि आपात स्थिति में क्या करना चाहिए...कैसे बचना चाहिए, कैसे बाहर निकलना चाहिए, कैसे लड़ना चाहिए. जो थोड़ी बहुत जागरूकता कार्यक्रम होते भी है उनमे से ज्यादातर खानापूरी ही रह जाते हैं.
हमें ज़रूरत हैं स्कूल, कॉलेज और ऐसे तमाम अन्य संस्थानों में प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाने की जहाँ हमें पता हो की ऐसे हादसों के वक़्त हमें क्या करना है, कैसे निपटना है.
ऐसे सुनियोजित आतंकी हमलों से लड़ना आम आदमी के बस का नहीं है...मगर बचना तो सीख सकता है...थोडा बहुत तो बच ही सकते हैं ऐसी स्थिति में. सरकार हर किसी को लड़ना नहीं सिखा सकती, बचना तो सिखा सकती है. हम खुद भी तो सीख सकते हैं.

और ये सिर्फ़ सरकार की ही जिम्मेदारी नहीं है कि सारी सतर्कता वही बरते. अपनी आँखों के सामने छोटे गुनाह होते देख निगाहें फेर लेने वाले लोग उसी वक़्त बड़े जुर्म की बुनियाद में भी एक ईंट जोड़ देते हैं.