Tuesday, January 13, 2015

किताबें

वैसे तो तकनीक के इस दौर में वक़्तगुजारी के लिए साधनों की कमी नहीं है. खासकर तब, जब केबल टीवी, स्मार्टफ़ोन और इन्टरनेट ताज़ी ऑक्सीजन से भी ज्यादा सुलभ हैं मगर इस दौर में भी किताबों की अपनी महत्ता है, उसका अपना जलवा है.
जब भी लोग दिख जाते हैं अपने स्मार्ट फ़ोन पर गेम खेलकर, बिना वजह इन्टरनेट सर्फिंग करके और वो तमाम काम करते हुए जो भी उस पर संभव हैं तो अपने बैग में रखी या हाथ में पकड़ी हुई किताब से शंका सर निकालने लगती है कि क्या अभी भी वक़्तगुज़ारी के लिए किताबें पढना सही है? सोच विचार के बाद जबाब मिलता है, ‘हाँ.’
तकनीक ने हमारी लाइफस्टाइल चाहे जितनी बदल दी हो मगर पढना जो कि कुछ नया जानने का ही एक और तरीका है, वो इंसान की जिज्ञासु प्रवृति की वजह से आजतक मौजूद है. ऐसे लोग आम मिलते हैं (मैं खुद भी) जो सुबह उठने पर न्यूज़पेपर ना दिखाई दे तो पेपरवाले का बिछड़े महबूब सा इंतज़ार करते हैं.  
अच्छे से अच्छे मित्र के लिए दिल में कभी खटास पैदा हो सकती है मगर एक अच्छी किताब पढने पर हमेशा ही सुकून मिलता है, नयी राह दिखती है. आप शादी पार्टी में भी बोर हो सकते हैं मगर एक अच्छी किताब पढ़ते हुए कभी नहीं. दुनिया का महंगा से महंगा इत्र नापसंद हो सकता है मगर नए किताब से पन्नो से आती खुशबू का जबाब नहीं.
बचपन में जब वक़्तगुज़ारी के लिए केबल चैनल का इतना बोलबाला नहीं था और इन्टरनेट जो कि प्योर लक्ज़री में गिनी जाती थी तब वक़्तगुज़ारी का सबसे सस्ता और अच्छा साधन वो लोकल लाइब्रेरी हुआ करती थीं जहाँ किताबें दिन या घंटे के हिसाब से किराये पर मिला करती थी. एक से एक उम्दा कॉमिक्स, किताबें सहज उपलब्ध थी. और, कभी कभार पहले पढने के लिए बाकायदा बुकिंग करनी पड़ती थी. उस दौर में लेखक होना पैसों की तो नहीं मगर सम्मान की चीज़ जरुर हुआ करती थी. बस, ट्रेन के सफ़र के दौरान भी लोग पेपर या मैगज़ीन खरीद लिया करते थे जो कि सफ़र काटने के साथ साथ सहयात्री से बात शुरू करने का भी एक बहाना हुआ करता था. अब तो लोग सफ़र शुरू करते ही कान में ईयरफ़ोन लगाकर बाकियों के लिए ‘डू नोट डिस्टर्ब’ का बोर्ड पहले ही टांग देते हैं.  
आज धीरे धीरे जब लोगों में पढने की आदत ख़त्म होती हुई दिखती है तो अफ़सोस होता है. मोबाइल गेम में सर और निगाहें गडाये ना तो बच्चों को ही पढने में कोई खास रूचि होती है और ना ही उनके माता पिता उन्हें कोर्स की किताबों के अलावा कुछ पढने के लिए प्रेरित करते हैं. रही सही कसर केबल टीवी का बुद्धू बक्सा पूरा कर देता है.
लोगों बढती हुई असहिष्णुता का एक कारण ये भी है की हम कभी वक़्त ही नहीं निकालते की दूसरों के बारे में पढ़कर उनके बारे में, उनकी राय भी जाने. इतिहास का उनका वर्शन भी समझें.
किताबें गुजरे हुए कल से आज तक का दस्तावेजी सबूत होती है. इनसे प्रेम करिए. इनकी संगत में ज्यादा से ज्यादा वक़्त गुजरिये. 
अच्छा लगेगा.




Saturday, January 3, 2015

PK- टोटल लुल्ल बटा दुई है ई पिच्चर

हमरे गोला पर ऐक बहुतै डेंजर रांग नम्बर है...लोगन क बात बिना सुने आपन फैईसला दई देये वाला रांग नम्बर. बात सुनौ ना सुनौ, आधा सुनौ पूरा बूझो और मुंडी हिलाय देयो...”अच्छा, अच्छा भेरी गुड्ड भेरी गुड्ड” कहि के... औ, जब कौनो बोले की हमरा पूरा बात सुनो तो पाहिले, तौ कहो “अच्छाSSS!!! अब तू हमको सिखाये रिया है”
हम देखत रहा की बहुतय लोग ई आमिर खान औ राजकुमरा के नवका पिच्चरवा के बुराई करत है औ बहुते लोग एकर तारीफ़ करत है. तौ हम सोचा की एह बात कए फईसला बिना पिच्चरवा देखे कईसे होई?
परसों हमरी एक दोस्त बोलिस की हम जनवरी लास्ट मा ई पिच्चर तोहरे साथे देखब काहे से की अबिही टाइम के बहुते कमी है. तौ, हम ओकर बात मानि के बोला “अच्छा...ठीक है” काहे से कि पिच्चरवा रिलीज होई के बाद कहूँ भाग थोरे जात है? लेकिन कल हमरा एक और दोस्त बोला के भाई एह पिच्चर को देखना है. रात के बखत टाइम खाली रहा...हम सोचा के देख लेवेमा का बुराई है? जौ पिच्चर बढ़िया रहा तौ जनवरी लास्ट में येक बार अउर देखि लिहा जाई नाइ तौ ओका दूसर पिच्चर दिखाई दिहा जाई.
हम पिच्चर देखा...फुल कनसनटीरेशन के साथ. सुने रहे की ई पिच्चर मा बहुते घालमेल वाला बात कहा गय है मगर जब हम पिच्चर देखा तो पता लगा की ई पिच्चर तो टोटल लुल्ल बटा दुई है. मतलब की आधा लुल्ल है.
एक ठो परग्रही हमरे देश मा उतरत है. वईसे तो हालीबूड वालन के हिसाब से हर बार अमरीका में उतरत है मगर एहि बार अपने देस की धरती पर उतरत है. नंगा...जईसे उ टर्मिनेटर वाला हीरउआ उतरत है. यकदम नंगा...अइसे टुकुर टुकुर का निहारत हौ? अपने हियाँ सेंसर बोर्ड के काम पूरा नंगई देखाइब नाइ हौ.  
मगर ई परग्रहिया केहू के सताई के ओकर कपडा नाही लेत. उ तौ ‘डांसिंग कार’ से आपन कपडा लत्ता के जुगाड़ करत है. हमका ई अभहिन् तक समझ में नाइ आवा कि ई डांसिंग कार एतना थोक के भाव कउन सहर मा मिलत है?
खैर, जईसे अब हम लोग केहू के दरवज्जा पर पहुँच के घंटी बजावे के जगही ओकरे नंबर पर मोबाइल से मिस कॉल मारत हैं की हे सुनौ हो, बहरे निकरो..वईसे उ परग्रहिया के जरूरत है अपना रिमोटवा का ताके सिगनल मार के आपन जहाजिया वापस धरती पर बुलावे. मगर हियाँ ओकर रिमोटवा एक गिरहकट लई के भागि जात है. ससुरा ईहौ नहि सोचिस की आन ग्रह पर अपने ग्रह क्य काव इज्जत रहि जाई.
एह्मा ऐक ठो हीरोईनिउ है...अपने सरमा जी के बिटिया अनुस्का सरमा. मगर पिच्चर मा ओकर नाम बिगाड़ के औ ऊपर से चौखटा बिगाड़ कए का मिला ई समझ में नाहि आवा. अब हमरे उ तिसरे दोस्तवा के का होई जउन ओनकर पोस्टर अपने कमरा के दरवज्जे के पीछे चिपकाये रहे.
हिंद्स्तानी लइकी औ पाकिस्तानी लइका के प्रेम विदेस में परवान चढत है. ई हिन्दू उ मुस्लिम. लेकिन लइका लइकी के प्रेम सफल न होवे पावत है. लइकी अपने देस में, दिल्ली में आई जात है जहाँ उका मिलत है पियरका  हेलमेटवा पहिरे घुमत ‘पीके’ उ सबके परचा बाँटत रहा की भगवान लापता होई गय हैं...कौनो के मिले तो पीके के बतावे. काहे से की उ जहाँ जहाँ आपन रिमोट पूछा ओका हर आदमी बोला की तोहर रिमोट तौ अब भगवाने दिलाये सकत हैं. तौ उ भगवान् के लगल खोजे.
बहुते खोजत है मगर ना भगवान् मिलत हैं औ ना मिलत है रिमोटवा.
फिर आपन हिरोईनी मदद करत ही ओकर रिमोट पावे में औ उ मदद करत है हिरोईनी के प्रेमी पावे में. सबके आपन आपन आइटम मिल जात है. बस कहानी ख़तम. हैपीज़ एंडिंग.
सबके एकटिंग बढिया है. सबसे बम्पर प्वाइंट रहा मगन परग्रहिया भोजपुरी बोलत रहा और एके साल में उ अपने गोला परसे अपने जैसन और लइके जब वापस हियाँ आवा तौ एक मिला जौन हियाँ के रनबीर कपुरवा टाइप लागत रहा, ओहू के तनकी तनकी भोजपुरी सिखाई के लावा रहा.   
लेकिन तौ फिर झोल केहर है?
ई पिच्चर मा रजुआ भटक गवा है. बात सुरु किहे गाँधी जी के प्रतीक बनाई के सिस्टम के गड़बड़झाला से औ लई जाई के ख़तम किहे हिन्दू मुस्लिम एकता पे. ओहपर से लईका लईकी के इंटरनेसनल प्यार. लईकी- परगरही के प्यार. भक बुडबक. कहानी के लाइन और लेंथ मा बिगहा भर के फरक आई गवा.
अब बहुते लोग एकर बिरोध करत हैं की ई हमरे धरम पर आघात है. लेकिन सिनेमा के पोस्टर फाड़े से का होई. अइसन काम से केकर फ़ायदा होई? अरे करहीके है तौ जउन जउन बातन पर उंगली उठत है ओकर शंका समाधान करो. औ अइसन मौके काहे देव, की केहू तोहरे ऊपर उंगली उठावे. सांति से जउन भरम है, तउन दूर करो. जउन कमी है, तउन दूर करो.
एह मुद्दा पे इहसे जियादा बढ़िया पिच्चर रहे ‘ओ माई गॉड’.