Sunday, October 5, 2014

स्वच्छ भारत- अभियान से आदत तक

पुराने ज़माने में (थोड़े फ़ेरबदल के साथ आज भी) कम आय वर्ग के घरों के लड़कों की शादी की लिए भी कम पापड़ नहीं बेलने पड़ते थे. लड़के की शादी लायक उम्र होने पर पिता की जगह उसे सामाजिक कार्यक्रमों में भेजा जाने लगता था, जहाँ वो ‘सजनी हमहूँ राजकुमार’ बना शिर्कत करता था. घर ठीक ठाक करा लिया जाता था और कभी कभीं ‘वर देखुआ’ पार्टी आने के पहले अनाज की बोरियां और पडोसी के बैल आजकल के मोटर गाड़ियों की तरह ही ड्योढ़ी पर सजा दिए जाते थे.
सोशल मीडिया पर हलचल देखकर ऐसा लगता है जैसे हिन्दुस्तान में भी कोई ‘वर देखुआ’ पार्टी आने वाली है. हर तरफ़ सफाई सफाई का इतना शोर है कि लगता है जैसे कोई सफाई क्रांति हो गई हो, और हिन्दुस्तान का सारा कूड़ा अरब सागर के भी पार किसी अनजान स्थान पर भेजा जाने वाला हो. अच्छा लगा, लोगों की अपने प्रधानमन्त्री की अपील पर ये प्रतिक्रिया देखकर. ख़ुशी हुई ये देखकर कि, भले ही कुछ लोगों ने सिर्फ फोटो खिंचवाने और सोशल मीडिया पर अपलोड करने के लिए हाथ में झाड़ू पकड़ा हो मगर कईयों ने वाकई इस अपील को दिल से अपनाया.
मगर अफ़सोस ये होता है की सफाई जैसे काम के लिए भी प्रधानमंत्री को स्वयं बार बार अपील करनी पड़ती है. हम अपना आँगन तो साफ़ कर लेते हैं मगर गली गन्दी कर देते हैं. सुबह सुबह नहा कर सूर्य को जल चढाने वाली संस्कृति के पोषक देश में नगर निगम की कूड़ागाड़ी की व्यवस्था की बावजूद कॉलोनी के खाली पड़े प्लाट पर कूड़ा फेकने का कल्चर कहाँ से पनप गया...सोचने वाली बात है.
हिन्दुस्तान के अमूमन हर त्यौहार के दौरान कानों में पड़ने वाले ‘सत्य की असत्य पर जीत’ ‘बुराई पर अच्छाई की जीत’ जैसे सन्देश मुझे ये याद दिलाने से भी नहीं चूकते कि बुराई कितनी भी बुरी क्यूँ ना हो, अच्छाई के सामने अब तक ताल ठोंक का टिकी हुई है. हिन्दुस्तान में बसा कौन सा ऐसा धर्म/मजहब/सम्प्रदाय/पंथ...है जिसने हजारों सालों से साफ़ सफाई का उपदेश ना दिया हो मगर फिर भी हम आज तक गंदगी से पूर्णतया छुटकारा ना पा सके.
मैं सोशल साइंस का का कोई एक्सपर्ट तो नहीं, मगर इतना समझता हूँ की इस कूड़े और गंदगी से हिन्दुस्तान तबतक आज़ाद नहीं हो सकता जबतक हम गंदगी को गंदगी मानना शुरू ना कर दें. शायद, कई बार हम सामाजिक और मानसिक तौर पर कूड़े और गंदगी के साथ रहने के इतने अभ्यस्त हो चुके होते हैं की हमें वो गंदगी लगती ही नहीं है. गजबजाती नालियों और सड़क पर उड़ते कूड़े करकट के हम इतने अभ्यस्त हो चुके होते हैं की उन्ही रास्तों से जब कोई मुंह पर कपडा बाँध कर निकलता है तो या तो उसे हम ‘बाइकर’ मान लेते हैं या ‘बीमार’.
कुछ तो इतने कमाल के प्राणी होते हैं जो ‘यहाँ थूकना मना है’ लिखे पर ही थूक देते हैं.
जहाँ रेलवे फाटक पर बस रुकने पर आसपास लगे एक एक तने पर दस दस लोगों का कब्ज़ा करके ‘शंका निवारण’ की परिपाटी हो, वहां आखिर गंदगी दूर हो तो कैसे हो? जहाँ ट्रेन के टॉयलेट में मग को चेन से बाँध कर रखना पड़े और ‘सिर्फ फैंसी सड़कों पर लगे कूड़ेदान’ टूट जाएँ, गायब तक हो जाएँ वो जगह साफ़ रहे तो कैसे रहे? धीमे धीमे ही बढती सही, मगर सफाई पसंद करने वाली जमात जब हाथ पकड़ी पानी की बोतल या छिलके फेकने के लिए कूड़ेदान की तलाश में निगाह दौड़ाती है तो कुछ ना पाकर मजबूरन वो भी वहीँ फेक देती है जहाँ पहले से ही कूड़ा पड़ा हुआ है.  
अगर सिर्फ़ अभियानों से काम चलता तो शायद आज हम राकेट की जगह एलीवेटर से मंगल पर जा रहे होते. कोई भी सामाजिक अभियान तब तक सफल नहीं हो सकता है जब तक कि लोग उससे ना जुड़ें. हो सकता है कि ख़बरों को पढने में मेरी निगाह चूक गई हो मगर प्रधानमन्त्री की इस अपील पर राज्य सरकारों ने क्या रवैया अपनाया,मुझे पता नहीं.
वैसे, हर स्तर पर सफाई करना/रखना सरकार का काम है भी नहीं. किसी जगह को साफ़ रखना आपके चुनाव पर भी निर्भर करता है. अगली बार कहीं गंदगी फेकने से पहले अपने आप से, ईमानदारी से सिर्फ एक सवाल ज़रूर पूछिएगा कि “क्या ये गंदगी फेकने की सही जगह है?”

‘स्वच्छ भारत अभियान’ एक बहुत अच्छी पहल है मगर इसकी सफलता तब तक संदिग्ध है जब तक हम सब मिलकर इस अभियान को आदत में ना बदल लें. ये ना एक दिन में होगा, और ना सिर्फ एक बार करने से ही हो जायेगा. 
मगर कोशिश करने से क्या नहीं हो सकता ?

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