Thursday, April 2, 2015

Short, Dark...Beautiful ?

लक्ष्मीकान्त पार्सेकर साहब का बयान निंदा, बहस और राजनीति का मुद्दा हो सकता है मगर क्या ये सच नहीं कि चमड़ी के रंग को लेकर हमारे समाज के अपने पूर्वाग्रह हैं.
लगभग ३००० करोड़ रूपये (जी हाँ) का फेयरनेस क्रीम का बाज़ार शायद एकबारगी यकीन से परे लगे, पर सच यही है हिंद्स्तान की एक बड़ी जनसंख्या की मानसिकता में जो प्रेमभाव गोरे रंग के लोगो को सहज ही उपलब्ध होता है उसके पीछे हमारे समाज के बहुत बड़े तबके की अपनी सोच ही जिम्मेदार है. और इस सोच को बढ़ाने में संस्कृति का गलत सहारा लेकर इस गढ्ढे में कूदने से पहले खुद ही कांटे बिछा देने वाला काम करने में भी हम पीछे नहीं हैं.   
बुरा लगा ?
क्यूँ लगा ?
जब ‘यशोमती मैया से बोले नंदलाला, राधा क्यूँ गोरी मैं क्यूँ काला” सुनकर नहीं लगा तो अब क्यूँ लगा ?
संस्कृति के टीवीमयी चित्रण ने इस पूर्वाग्रह को और हवा दे दी. भगवान राम, भगवान कृष्ण सावलें हो सकते हैं मगर माता सीता और राधा गोरी ही थीं, हैं और अगर कुछ नहीं बदला तो रहेंगी भी. देव सब सुंदर, अदभुत, सजीले और असुर सब कुरूप, टेढ़े मेढ़े और शेविंग किट से कोसों परे !


ये किससे छुपी हुई बात है कि हिन्दुस्तान में, खासकर उत्तर भारत में अधिकांश लोग, दूसरों की क्षमता निर्धारण में उनकी शारीरिक बनावट को आधार बनाने में कोताही नहीं बरतते. और शायद इसी एक काम में हम लिंगभेद भी नहीं करते हैं.
मेरे एक मित्र मुझसे जरा सा कम लम्बें हैं और खुद अपनी ज़ुबानी ये कहते हैं कि अगर कोई तीसरा अनजान आदमी ड्राइविंग के लिए गाडी की चाभी देने आये तो तुम्हे ही देगा. वास्तविकता तो ये है कि ट्रेन, रोड रोलर, हवाई जहाज़ जैसे कुछ और वाहन छोड़ दें तो हर तरह की गाडी वो ड्राइव कर सकते हैं. मुझसे बेहतर कर सकते हैं.
कभी अख़बारों में हर इतवार छपने वाले वैवाहिक विज्ञापन में वधु चाहिए का कॉलम पढ़ा है? क्या कभी गौर किया है कि कितने विज्ञापनों में होनी वाली बहू का गोरी होना उसकी अपरिहार्य आवश्यकता बनाकर पेश किया जाता है? क्या ऐसे लोग नहीं मिले आपको जो लड़कियों को देखने का टीमझाम करके सिर्फ इस वजह से बहाना बनाकर या सीधे ही मना कर देते हैं कि लड़की उनकी चाहतों जितनी गोरी नहीं ? अगर लगता हो कि सिर्फ लड़कियों के ही ये फांस है तो इस आंकड़े पर भी गौर कीजियेगा की किसी ज़माने में फीमेल फेयरनेस क्रीम की बिक्री में २५ प्रतिशत के आसपास योगदान पुरुष उपभोक्ताओं का था. आज मेल फेयरनेस क्रीम का अलग भरा पूरा बाज़ार है.
फिल्मों ने हमारा ऐसा मार्गदर्शन कर दिया है कि कुछ कहते नहीं बनता. ज़रा गौर कीजिये..
१-       गोरे रंग पे ना इतना गुमान कर...
२-       गोरी हैं कलाइयां...
३-       चिट्टियां कलाइयाँ वे...
४-       गोरिया रे गोरिया...
५-       गोरी तेरा गाँव बड़ा प्यारा...
६-       गोरे गोरे मुखड़े पे काला काला चश्मा...
७-       ये काली काली आँखे, ये गोरे गोरे गाल....
८-       गोरी गोरी गोरी गोरी गोरी गोरी, कभी कभी कहीं कहीं चोरी चोरी...
अभी और भी हैं, मगर इससे हम किस सोच को सींच रहे हैं ?
गोरे रंग को लेकर हमारी इससे ज्यादा हंसी वाली बात क्या होगी की हर गोरे रंग का विदेशी हममें से कईयों के लिए अंग्रेज ही होता है भले ही वो इंग्लैंड से आया हो, रूस से, ऑस्ट्रेलिया से या जर्मनी से.
रहम करिए आने वाले वक़्त पर और कोशिश करिए की समाज को इस कलर कोडिंग से आज़ादी मिल सके. व्यक्ति की मेधा, प्रतिभा और संस्कार उसके चमड़ी के रंग पर निर्भर नहीं करते.
कब स्वीकार कर पाएंगे हम इस सच को ?  
  



Wednesday, March 18, 2015

तुलसी की नारी

बंगाल में रद्द हुआ महिला फुटबाल मैच, हाथरस में आधा दर्जन जाहिलों के दिमागी दिवालियेपन की शिकार एक महिला और घरों में बिना आवाज किये पिटती, सहती, चुप रहती लाखों महिलाओं के आक्रंताओ की मानसिकता में जब धर्म और सामाजिक सहमति का तड़का लग जाता है तो स्थिति और भी खतरनाक हो जाती है.
मगर क्या धर्म वाकई ये कहता है ? या कुछ तथाकथित बुद्धिजीविओं ने धर्म का सहारा लेकर अपनी ज्यादतियों को जायज ठहराने की आदत पाल ली है?
मिले हैं ऐसे भी लोग मुझे जो घरेलू हाथापाई के लिए जाने कहाँ कहाँ की सूक्तियां, उदाहरण दे देकर ये साबित करने की कोशिश करते हैं की ये तो आदिकाल से चला आ रहा है. आदिकाल से चला आ रहा है, इसलिए सही भी है. और इनके निशाने पर सबसे पहले आते हैं तुलसीदास.
रामचरितमानस की और कोई चौपाई याद हो ना हो मगर “ढोल गंवार शुद्र पसु नारी, सकल ताड़ना के आधिकारी” की ढाल खड़ी कर बच निकलने की कोशिश करने से ये कभी नहीं चूकते.
मैं धार्मिक नहीं. रामचरितमानस मुझे कंठस्थ नहीं और ना ही इसके लिखे जाते समय मैं तुलसी बाबा की चारपाई के सिराहने खड़ा था जो उनसे उसी वक़्त ऐसा लिखने की वजह पूछ लेता मगर फिर यकीन है कि उनकी लिखी चौपाई का ऐसा इस्तेमाल होते देखते तो वो भी ऐसी सोच रखने वाले पर खुश ना होते.
अफ़सोस तब ज्यादा होता है जब पढ़ा लिखा तबका भी इसको एक्सेप्ट कर लेता है.
मैं इतिहासवेत्ता नहीं...होता तो जरुर कोशिश करता कि इस चौपाई के पीछे का सन्देश क्या है मगर कहते हैं ना कि कभी कभी पढ़े से कढा अच्छा.
ऐसे ही एक कढ़े हुए आदमी की कही हुई बात नहीं भूलती इस चौपाई के बारे में. बारह पंद्रह साल पहले छोटी लाइन पर मंथर गति से चलती ट्रेन में मुलाकात हुई थी उस आदमी से. गर्मी की दोपहरी और सीट्स पर बैठे ५/६ लोग जिनमे से एक मैं भी था... और एक खिचड़ी दाढ़ी वाला एक ऐसा अति साधारण पहनावे वाला साधू जो राह चलते कभी सामने से गुजर तो भी लोगो को नहीं दिखता.    
मोबाइल इन्टरनेट आम नहीं था इसलिए सफ़र में वक़्तगुजारी का सबसे अच्छा साधन बतकही हुआ करती थी. जाने कहाँ की बात कहाँ से निकली और अचानक इस चौपाई पर आकर रुक गई. कहने वाले ने गर्व से बाकियों को देखा जैसे मन ही मन कह रहा हो “बोलो, है कोई जबाब इसका?”
सामने बैठा वो साधू हंसने लगा. जोर से, ठठाकर.
“तुलसी बाबा इ थोड़े ना बोले थे बेटा कि घर के बाहर से गाली खा के आओ तो मेहरारू को थप्पड़ जमा दो, दारु पी के आओ खाना ना मिले तो लात जूता लेके शुरू हो जाओ..अरे जो गलती तुमको करना वो तो तुम कर ही रहे हो...मगर तुलसी बाबा को काहे घसीट ले रहे हो अपने इ सब काम में” साधू ने उस बुद्धिजीवी से पूछा.
“अरे तो आप ही बताओ क्या मतलब हुआ इसका...बताओ” बुद्धिजीवी ने चैलेंज सा फेंका.
“बताता हूँ. पहिले इ बताओ की ताड़ना मतलब क्या होता है?
“ताड़ना मतलब दंड देना, सीख देना”
“और चिकित्साधिकारी का का मतलब होता है?”
“चिकित्सा करने का सामर्थ्य जिसके पास हो”
“जिलाधिकारी मतलब”
“जिले का अधिकारी मतलब जिसके पास जिले को सम्हालने का जिम्मा हो”
“और दंडाधिकारी मतलब?”
“दंड देने का अधिकारी”
“मतलब?”
“मतलब जिसके पास दंड देने का अधिकार हो और क्या”
“और ताड़ना के अधिकारी मतलब?”
“मतलब ?”
“मतलब जिससे पास ताड़ना देने का सामर्थ्य हो. तुम तो तुलसी बाबा की पूरी कथा ही इधर उधर कर दिए. बाबा जब कहे रहे की जब इ पांचो में ताड़ना का सामर्थ्य है तो मतलब का हुआ इसका?” साधु बोलता गया. “मतलब ये हुआ की इन पांचो से सही से, ढंग से पेस आया करो वरना ये रुष्ट हो गये तो जिनगानी में मजा नहीं आएगा बाबु. जो ढोल शादी बियाह में मजा देता है वही ढंग से, मोह्हबत से नहीं बजाओगे तो बहुत कष्टकारी आवाज आएगी. जिस मेहरारू को तुम लोग बिना बात दो हाथ जमा देना में अपना मर्दानगी समझते हो वो एक दिन घर के काम से हाथ से हाथ खींच ले तो नौकरी चाकरी सब छोड़ के घरे साफ़ करते फिरोगे बाबु. एक हफ्ता बच्चे का लंगोटी धोने को बोल दे तो अठवे दिन कहोगे की बाबा दीक्षा दिला दो. कोई ना बोले तो तुम्हारा गल्त काम सही थोड़े हो जायेगा. अब बोलो बाबु, कौन किसको ताड़ना देने का सामर्थ्य रखता है?”
अब उस साधू ने तुलसी का दर्शन सही समझाया या गलत वो तो वो जाने या तुलसी बाबा मगर मैंने इसी दर्शन के साथ जुड़े रहने का फैसला कर लिया था.
आपको सही लगे तो दूसरों को भी यही दर्शन बांटते रहिये.

शुभरात्रि. 

Tuesday, March 3, 2015

नकारात्मकता का वाई फाई कनेक्शन

जब से दुनिया बनी है तबसे दुनिया में तमाम बीमारियों ने पाँव पसारा. दुनिया ज़हान के लोगों ने मिलकर उनका इलाज खोजा और दुनिया को रहने लायक बनाया. मगर एक छुआछूत जैसी बीमारी का इलाज शायद आजतक नहीं मिल पाया...और उस नासपीटी बीमारी का नाम है, नकारात्मकता. बीमारी इसलिए कहना पड़ रहा है क्यूंकि इससे किसी का भला होते तो नहीं देखा आजतक.
कभी मिला है ऐसा मरीज आपको?
ऐसे लोगों को मैं कहता हूँ HED यानी Human Energy Drainers.
चाल में सुस्ती, बात में पस्ती और शकल पर मुर्दे के राख सी लपेट कर फिरने वाले लोगो ने अपनी जली किस्मत के चलते ये फ़ितरत पैदायशी पाई होती है या किसी और कलाकार से सीख कर पॉलिश की होती है इस बार में विद्वानों में मतभेद हो सकता है मगर इस बात में कत्तई कोई दो राय नहीं हो सकती है कि इसके मरीज को फ़ौरन इलाज की सख्त ज़रूरत हमेशा होती है.
दुनिया भर की मैनेजमेंट यूनिवर्सिटीज ये बताने में लगी रहती हैं कि रिसोर्सेज कैसे मैनेज करें, प्रॉफिट कैसे बढ़ाएं, लास कैसे कम करें मगर टॉप के मास्साब लोग भी ये बताने से चूक जाते हैं कि नकारात्मकता के मशाल धावकों से कैसे बचें?
मेरी निगाह में सबसे उम्दा, सबसे कारगर तरीका है कि दूर रहें.
गज फुट से नापकर दूर होने की जगह ऐसा रेडियस चुने जिसके अन्दर ऐसे लोगो की बात अन्दर घुसने से पहले ही दम तोड़ दिया करे.
इनकी बातें कानो में पड़ भी जाएँ तो ऐसे इग्नोर करें जैसे एग्जाम में आखिरी मिनट में घनघोर रफ़्तार से शीट भरने में लगा विद्यार्थी कक्ष निरीक्षक की जल्दी आंसर शीट जमा करने की घोषणा पर कान नहीं देता.
क्यूंकि एक बार इनकी बातों पर ध्यान दे दिया तो जनम भर का रोग लगा लिया समझो.
ऐसे लोग जब आधा भरा गिलास देखते हैं तो ये सोचने से नहीं चूकते कि गिलास आधा ख़ाली तो जो है वो हइये है कहीं टूट ना जाये और बाकी पानी भी चला जाये. ऐसे लोग जब किसी बीमार को देखने जाते है तो सांत्वना देते वक़्त कह देते है कि “लकी आदमी हो भाया, दस में से नौ मर जाते है तुम्हारी वाली बीमारी से...ख़ुशी की बात है कि नौ मर चुके हैं”. भविष्य की तरफ़ पीठ करके चलने वाले, बीते वक़्त की ब्लैक एंड वाइट तस्वीरें बगल में दबाये चलने वाले ये लोग आने वाले वक़्त की आशा नहीं देखते, बीते दौर की रंगीनियों का रोना रोते रहते हैं.
लेकिन लाख रुपये का सवाल ये है कि लोग ऐसे होते क्यूँ है?
शायद इसलिए की उनकी अपनी जिंदगी में उन्होने उम्र भर से ऐसे ही देखा है जीवन को, ऐसे ही जिया है जिंदगी को...चूँकि शायद खुद कुछ ना कर पाए अपनी जिंदगी में इसलिए आदत बना ली हर किसी को चेताने कि जिंदगी की राह में रोड़े बहुत हैं, बैरियर बहुत हैं.
ऐसा आदमी अपनी कमज़ोरी को ही अपनी ढाल बनाये फिरता है.
नकारात्मकता का चलता फिरता वाई फाई टावर बने फिरते हैं. बिना पैसे के अपनी चिंताए दूसरों के दिलो दिमाग में डाउनलोड करवा देते हैं.
प्रभु बचाएं.
शायद उन्हें खुद कभी ऐसे किसी अपने का, दोस्त का सहारा ना मिला जो उन्हें उनकी पस्ती के आलम से बाहर निकाल पता इसलिए उन्होने दूसरों के भी उम्मीदों की सीढियों के डंडे तोड़ने शुरू कर दिए.
ऐसे लोग जहाँ भी मिलें, नज़दीकी मानसिक चिकित्सालय का पता उन्हे ज़रूर बताना चाहिए.

...सीरियसली मैन.

Wednesday, February 25, 2015

चिंतन की चिंता

किसी महापुरुष ने कहा है कि “चिंता ताकी कीजिये जो अनहोनी होए, अनहोनी होनी नहीं, होनी होए तो होए”...चिंतन के बारे में क्या कहा है...अभी पता नहीं.

आज की तारीख़ में चिंतन ट्रेंडिंग टॉपिक है.

चिंतन बड़े लोगों का शगल है, मूंगफली फोड़कर खाते...चखने के साथ बियर पीते हुए भी की जा सकती है.
चिंता छोटों का सरदर्द है... कमबख्त भूख ही नहीं लगती.

फरक है, विज़न का फ़र्क है बॉस.

चिंता करने वाले की नींद ही उड़ जाती है, चिंतन करने वाले का कभी कभी पता नहीं चलता है कि चिंतन करने वाला आँख मूंदे सोच रहा है या घुन्ना सचमुच ही सो गया है.
बड़े बड़े लोग चिंतन करते हैं...चिंतन करने के लिए बाकायदा माहौल बनाते हैं. पुराने ज़माने में खाली कमरा, शांत माहौल, हिमालय की चोटियाँ फैशन में थीं अब नए ज़माने में भद्रजन विदेशी समुद्री बीच के कलर्ड व्यू या विदेशी गार्डन की फ्रेश हवा की ज़रुरत महसूस करते हैं...जो कि अफ़सोस है कि दिल्ली जैसी एयर पॉलयूशन वाली हवा में मुमकिन नहीं. चिंता का क्या है, टूटी खटिया पर भी बैठ कर की जा सकती है...कुछ ना मिले तो खटिया की मौजूदा हालत की ही चिंता की जा सकती है.

चिंतन के लिए विषय का बड़ा होना ज़रूरी है. ग्लोबल वार्मिंग चिंतन का विषय है, बिजली का बिल चिंता का. नेशनल प्रॉब्लम से नीचे का चिंतन साधारणजन का काम है...और इसके लिए कोई टीवी पर बहस के लिए भी नहीं बुलाने वाला.  
मंच से जब कोई नेता जी या बोर्ड मीटिंग में बॉस कहते हैं हमें फलां समस्या के बारे में चिंतन करना चाहिए तो फ़ौरन ही ये क्लियर होता है कि कम से कम अगली मीटिंग तक इस मुद्दे पर कुछ नहीं हो सकता है मगर जब कोई धीरे से इशारा करता है जॉब की चिंता करो तो फ़ौरन से भी पहले पूरी टीम, ‘टीम’ की तरह काम करना शुरू कर देती है.
चिंतन की दुविधा ये भी है कि चिंतन करते समय बताना पड़ता है कि चिंतन प्रोसेस में है वरना कभी कभी दुनिया को पता ही नहीं चलता...चिंता करने वाले की शकल से फटकार बरसती है...बिना एफर्ट की पब्लिसिटी.

अभी पता चला कि एक साहब चिंतन करने के लिए ‘नॉन ट्रेसेबल मोड’ में हो गए. कहाँ है पता नहीं? वैसे तो होते हैं तो भी ना होने से कोई खास बेहतर नहीं होते, मगर नादानों ने मुद्दा बना दिया. ये काम कभी कभी सेल्स की फ़ील्ड में काम करने वाले भी करते हैं. शाम की रिपोर्टिंग के वक़त मोबाइल की बैटरी निकाल कर मोबाइल को जैसे ‘नॉट रिचेबल मोड’ पर लगा देते हैं.

जैसे कुछ लेखक हुआ करते हैं जो अपनी बीवीयों पर, कुर्सी पर सोते से जगाये जाने से भड़क जाते हैं, कहते हैं चिंतन में ख़लल डाल दिया...कुछ लोग ताव खा रहे कि मुद्दा बनाकर भी चिंतन में ख़लल डाल रहे हो.

ये भी एक्स्ट्रा सरदर्द है चिंतन के साथ...ख़लल पड़ना मुमकिन होता है, कभी सुना है आपने जब किसी ने कहा हो मेरी चिंता में ख़लल डाल दिया ?
नहीं ना.
क्यूंकि चिंतन कैपटिलिस्टिक कांसेप्ट है, बांटना आसान नहीं. चिंता असल समाजवादी कांसेप्ट है...चलते फिरते भी अगल बगल वाले को बराबर बांटा जा सकता है. अपने पास ना हो तो भी दूसरे को दिया जा सकता है.

#चिंतन अभी तक ट्रेंड कर रहा है.



Tuesday, January 13, 2015

किताबें

वैसे तो तकनीक के इस दौर में वक़्तगुजारी के लिए साधनों की कमी नहीं है. खासकर तब, जब केबल टीवी, स्मार्टफ़ोन और इन्टरनेट ताज़ी ऑक्सीजन से भी ज्यादा सुलभ हैं मगर इस दौर में भी किताबों की अपनी महत्ता है, उसका अपना जलवा है.
जब भी लोग दिख जाते हैं अपने स्मार्ट फ़ोन पर गेम खेलकर, बिना वजह इन्टरनेट सर्फिंग करके और वो तमाम काम करते हुए जो भी उस पर संभव हैं तो अपने बैग में रखी या हाथ में पकड़ी हुई किताब से शंका सर निकालने लगती है कि क्या अभी भी वक़्तगुज़ारी के लिए किताबें पढना सही है? सोच विचार के बाद जबाब मिलता है, ‘हाँ.’
तकनीक ने हमारी लाइफस्टाइल चाहे जितनी बदल दी हो मगर पढना जो कि कुछ नया जानने का ही एक और तरीका है, वो इंसान की जिज्ञासु प्रवृति की वजह से आजतक मौजूद है. ऐसे लोग आम मिलते हैं (मैं खुद भी) जो सुबह उठने पर न्यूज़पेपर ना दिखाई दे तो पेपरवाले का बिछड़े महबूब सा इंतज़ार करते हैं.  
अच्छे से अच्छे मित्र के लिए दिल में कभी खटास पैदा हो सकती है मगर एक अच्छी किताब पढने पर हमेशा ही सुकून मिलता है, नयी राह दिखती है. आप शादी पार्टी में भी बोर हो सकते हैं मगर एक अच्छी किताब पढ़ते हुए कभी नहीं. दुनिया का महंगा से महंगा इत्र नापसंद हो सकता है मगर नए किताब से पन्नो से आती खुशबू का जबाब नहीं.
बचपन में जब वक़्तगुज़ारी के लिए केबल चैनल का इतना बोलबाला नहीं था और इन्टरनेट जो कि प्योर लक्ज़री में गिनी जाती थी तब वक़्तगुज़ारी का सबसे सस्ता और अच्छा साधन वो लोकल लाइब्रेरी हुआ करती थीं जहाँ किताबें दिन या घंटे के हिसाब से किराये पर मिला करती थी. एक से एक उम्दा कॉमिक्स, किताबें सहज उपलब्ध थी. और, कभी कभार पहले पढने के लिए बाकायदा बुकिंग करनी पड़ती थी. उस दौर में लेखक होना पैसों की तो नहीं मगर सम्मान की चीज़ जरुर हुआ करती थी. बस, ट्रेन के सफ़र के दौरान भी लोग पेपर या मैगज़ीन खरीद लिया करते थे जो कि सफ़र काटने के साथ साथ सहयात्री से बात शुरू करने का भी एक बहाना हुआ करता था. अब तो लोग सफ़र शुरू करते ही कान में ईयरफ़ोन लगाकर बाकियों के लिए ‘डू नोट डिस्टर्ब’ का बोर्ड पहले ही टांग देते हैं.  
आज धीरे धीरे जब लोगों में पढने की आदत ख़त्म होती हुई दिखती है तो अफ़सोस होता है. मोबाइल गेम में सर और निगाहें गडाये ना तो बच्चों को ही पढने में कोई खास रूचि होती है और ना ही उनके माता पिता उन्हें कोर्स की किताबों के अलावा कुछ पढने के लिए प्रेरित करते हैं. रही सही कसर केबल टीवी का बुद्धू बक्सा पूरा कर देता है.
लोगों बढती हुई असहिष्णुता का एक कारण ये भी है की हम कभी वक़्त ही नहीं निकालते की दूसरों के बारे में पढ़कर उनके बारे में, उनकी राय भी जाने. इतिहास का उनका वर्शन भी समझें.
किताबें गुजरे हुए कल से आज तक का दस्तावेजी सबूत होती है. इनसे प्रेम करिए. इनकी संगत में ज्यादा से ज्यादा वक़्त गुजरिये. 
अच्छा लगेगा.




Saturday, January 3, 2015

PK- टोटल लुल्ल बटा दुई है ई पिच्चर

हमरे गोला पर ऐक बहुतै डेंजर रांग नम्बर है...लोगन क बात बिना सुने आपन फैईसला दई देये वाला रांग नम्बर. बात सुनौ ना सुनौ, आधा सुनौ पूरा बूझो और मुंडी हिलाय देयो...”अच्छा, अच्छा भेरी गुड्ड भेरी गुड्ड” कहि के... औ, जब कौनो बोले की हमरा पूरा बात सुनो तो पाहिले, तौ कहो “अच्छाSSS!!! अब तू हमको सिखाये रिया है”
हम देखत रहा की बहुतय लोग ई आमिर खान औ राजकुमरा के नवका पिच्चरवा के बुराई करत है औ बहुते लोग एकर तारीफ़ करत है. तौ हम सोचा की एह बात कए फईसला बिना पिच्चरवा देखे कईसे होई?
परसों हमरी एक दोस्त बोलिस की हम जनवरी लास्ट मा ई पिच्चर तोहरे साथे देखब काहे से की अबिही टाइम के बहुते कमी है. तौ, हम ओकर बात मानि के बोला “अच्छा...ठीक है” काहे से कि पिच्चरवा रिलीज होई के बाद कहूँ भाग थोरे जात है? लेकिन कल हमरा एक और दोस्त बोला के भाई एह पिच्चर को देखना है. रात के बखत टाइम खाली रहा...हम सोचा के देख लेवेमा का बुराई है? जौ पिच्चर बढ़िया रहा तौ जनवरी लास्ट में येक बार अउर देखि लिहा जाई नाइ तौ ओका दूसर पिच्चर दिखाई दिहा जाई.
हम पिच्चर देखा...फुल कनसनटीरेशन के साथ. सुने रहे की ई पिच्चर मा बहुते घालमेल वाला बात कहा गय है मगर जब हम पिच्चर देखा तो पता लगा की ई पिच्चर तो टोटल लुल्ल बटा दुई है. मतलब की आधा लुल्ल है.
एक ठो परग्रही हमरे देश मा उतरत है. वईसे तो हालीबूड वालन के हिसाब से हर बार अमरीका में उतरत है मगर एहि बार अपने देस की धरती पर उतरत है. नंगा...जईसे उ टर्मिनेटर वाला हीरउआ उतरत है. यकदम नंगा...अइसे टुकुर टुकुर का निहारत हौ? अपने हियाँ सेंसर बोर्ड के काम पूरा नंगई देखाइब नाइ हौ.  
मगर ई परग्रहिया केहू के सताई के ओकर कपडा नाही लेत. उ तौ ‘डांसिंग कार’ से आपन कपडा लत्ता के जुगाड़ करत है. हमका ई अभहिन् तक समझ में नाइ आवा कि ई डांसिंग कार एतना थोक के भाव कउन सहर मा मिलत है?
खैर, जईसे अब हम लोग केहू के दरवज्जा पर पहुँच के घंटी बजावे के जगही ओकरे नंबर पर मोबाइल से मिस कॉल मारत हैं की हे सुनौ हो, बहरे निकरो..वईसे उ परग्रहिया के जरूरत है अपना रिमोटवा का ताके सिगनल मार के आपन जहाजिया वापस धरती पर बुलावे. मगर हियाँ ओकर रिमोटवा एक गिरहकट लई के भागि जात है. ससुरा ईहौ नहि सोचिस की आन ग्रह पर अपने ग्रह क्य काव इज्जत रहि जाई.
एह्मा ऐक ठो हीरोईनिउ है...अपने सरमा जी के बिटिया अनुस्का सरमा. मगर पिच्चर मा ओकर नाम बिगाड़ के औ ऊपर से चौखटा बिगाड़ कए का मिला ई समझ में नाहि आवा. अब हमरे उ तिसरे दोस्तवा के का होई जउन ओनकर पोस्टर अपने कमरा के दरवज्जे के पीछे चिपकाये रहे.
हिंद्स्तानी लइकी औ पाकिस्तानी लइका के प्रेम विदेस में परवान चढत है. ई हिन्दू उ मुस्लिम. लेकिन लइका लइकी के प्रेम सफल न होवे पावत है. लइकी अपने देस में, दिल्ली में आई जात है जहाँ उका मिलत है पियरका  हेलमेटवा पहिरे घुमत ‘पीके’ उ सबके परचा बाँटत रहा की भगवान लापता होई गय हैं...कौनो के मिले तो पीके के बतावे. काहे से की उ जहाँ जहाँ आपन रिमोट पूछा ओका हर आदमी बोला की तोहर रिमोट तौ अब भगवाने दिलाये सकत हैं. तौ उ भगवान् के लगल खोजे.
बहुते खोजत है मगर ना भगवान् मिलत हैं औ ना मिलत है रिमोटवा.
फिर आपन हिरोईनी मदद करत ही ओकर रिमोट पावे में औ उ मदद करत है हिरोईनी के प्रेमी पावे में. सबके आपन आपन आइटम मिल जात है. बस कहानी ख़तम. हैपीज़ एंडिंग.
सबके एकटिंग बढिया है. सबसे बम्पर प्वाइंट रहा मगन परग्रहिया भोजपुरी बोलत रहा और एके साल में उ अपने गोला परसे अपने जैसन और लइके जब वापस हियाँ आवा तौ एक मिला जौन हियाँ के रनबीर कपुरवा टाइप लागत रहा, ओहू के तनकी तनकी भोजपुरी सिखाई के लावा रहा.   
लेकिन तौ फिर झोल केहर है?
ई पिच्चर मा रजुआ भटक गवा है. बात सुरु किहे गाँधी जी के प्रतीक बनाई के सिस्टम के गड़बड़झाला से औ लई जाई के ख़तम किहे हिन्दू मुस्लिम एकता पे. ओहपर से लईका लईकी के इंटरनेसनल प्यार. लईकी- परगरही के प्यार. भक बुडबक. कहानी के लाइन और लेंथ मा बिगहा भर के फरक आई गवा.
अब बहुते लोग एकर बिरोध करत हैं की ई हमरे धरम पर आघात है. लेकिन सिनेमा के पोस्टर फाड़े से का होई. अइसन काम से केकर फ़ायदा होई? अरे करहीके है तौ जउन जउन बातन पर उंगली उठत है ओकर शंका समाधान करो. औ अइसन मौके काहे देव, की केहू तोहरे ऊपर उंगली उठावे. सांति से जउन भरम है, तउन दूर करो. जउन कमी है, तउन दूर करो.
एह मुद्दा पे इहसे जियादा बढ़िया पिच्चर रहे ‘ओ माई गॉड’.