लक्ष्मीकान्त पार्सेकर साहब का बयान निंदा, बहस और राजनीति का मुद्दा
हो सकता है मगर क्या ये सच नहीं कि चमड़ी के रंग को लेकर हमारे समाज के अपने
पूर्वाग्रह हैं.
लगभग ३००० करोड़ रूपये (जी हाँ) का फेयरनेस क्रीम का बाज़ार शायद
एकबारगी यकीन से परे लगे, पर सच यही है हिंद्स्तान की एक बड़ी जनसंख्या की मानसिकता
में जो प्रेमभाव गोरे रंग के लोगो को सहज ही उपलब्ध होता है उसके पीछे हमारे समाज
के बहुत बड़े तबके की अपनी सोच ही जिम्मेदार है. और इस सोच को बढ़ाने में संस्कृति
का गलत सहारा लेकर इस गढ्ढे में कूदने से पहले खुद ही कांटे बिछा देने वाला काम
करने में भी हम पीछे नहीं हैं.
बुरा लगा ?
क्यूँ लगा ?
जब ‘यशोमती मैया से बोले नंदलाला, राधा क्यूँ गोरी मैं क्यूँ काला”
सुनकर नहीं लगा तो अब क्यूँ लगा ?
संस्कृति के टीवीमयी चित्रण ने इस पूर्वाग्रह को और हवा दे दी. भगवान
राम, भगवान कृष्ण सावलें हो सकते हैं मगर माता सीता और राधा गोरी ही थीं, हैं और
अगर कुछ नहीं बदला तो रहेंगी भी. देव सब सुंदर, अदभुत, सजीले और असुर सब कुरूप, टेढ़े
मेढ़े और शेविंग किट से कोसों परे !
ये किससे छुपी हुई बात है कि हिन्दुस्तान में, खासकर उत्तर भारत में अधिकांश
लोग, दूसरों की क्षमता निर्धारण में उनकी शारीरिक बनावट को आधार बनाने में कोताही
नहीं बरतते. और शायद इसी एक काम में हम लिंगभेद भी नहीं करते हैं.
मेरे एक मित्र मुझसे जरा सा कम लम्बें हैं और खुद अपनी ज़ुबानी ये कहते
हैं कि अगर कोई तीसरा अनजान आदमी ड्राइविंग के लिए गाडी की चाभी देने आये तो
तुम्हे ही देगा. वास्तविकता तो ये है कि ट्रेन, रोड रोलर, हवाई जहाज़ जैसे कुछ और
वाहन छोड़ दें तो हर तरह की गाडी वो ड्राइव कर सकते हैं. मुझसे बेहतर कर सकते हैं.
कभी अख़बारों में हर इतवार छपने वाले वैवाहिक विज्ञापन में वधु चाहिए
का कॉलम पढ़ा है? क्या कभी गौर किया है कि कितने विज्ञापनों में होनी वाली बहू का
गोरी होना उसकी अपरिहार्य आवश्यकता बनाकर पेश किया जाता है? क्या ऐसे लोग नहीं
मिले आपको जो लड़कियों को देखने का टीमझाम करके सिर्फ इस वजह से बहाना बनाकर या
सीधे ही मना कर देते हैं कि लड़की उनकी चाहतों जितनी गोरी नहीं ? अगर लगता हो कि
सिर्फ लड़कियों के ही ये फांस है तो इस आंकड़े पर भी गौर कीजियेगा की किसी ज़माने में
फीमेल फेयरनेस क्रीम की बिक्री में २५ प्रतिशत के आसपास योगदान पुरुष उपभोक्ताओं
का था. आज मेल फेयरनेस क्रीम का अलग भरा पूरा बाज़ार है.
फिल्मों ने हमारा ऐसा मार्गदर्शन कर दिया है कि कुछ कहते नहीं बनता.
ज़रा गौर कीजिये..
१-
गोरे रंग पे ना इतना गुमान कर...
२-
गोरी हैं कलाइयां...
३-
चिट्टियां कलाइयाँ वे...
४-
गोरिया रे गोरिया...
५-
गोरी तेरा गाँव बड़ा प्यारा...
६-
गोरे गोरे मुखड़े पे काला काला चश्मा...
७-
ये काली काली आँखे, ये गोरे गोरे गाल....
८-
गोरी गोरी गोरी गोरी गोरी गोरी, कभी कभी कहीं कहीं चोरी चोरी...
अभी और भी हैं, मगर इससे हम किस सोच को सींच रहे हैं ?
गोरे रंग को लेकर हमारी इससे ज्यादा हंसी वाली बात क्या होगी की हर
गोरे रंग का विदेशी हममें से कईयों के लिए अंग्रेज ही होता है भले ही वो इंग्लैंड
से आया हो, रूस से, ऑस्ट्रेलिया से या जर्मनी से.
रहम करिए आने वाले वक़्त पर और कोशिश करिए की समाज को इस कलर कोडिंग से
आज़ादी मिल सके. व्यक्ति की मेधा, प्रतिभा और संस्कार उसके चमड़ी के रंग पर निर्भर
नहीं करते.
कब स्वीकार कर पाएंगे हम इस सच को ?